Munich

बाहर कितना ही शोर क्यों ना हो रहा हो हमें अपने दिल की धड़कन सुनाई देती है।

मुझे मेरे बचपन से जो सीखने को मिला है वो यह ज़िदंगी के हर पड़ाव मे अपने छोटे डर और बड़ी उम्मीदों के साथ उतरो।

कोई नहीं जानता उस किताब में क्या लिखा था मगर सबको वो किताब याद है।
मैंने अपने पापा से सुना है उस शख्स के बारे मे जिसे एक किताब मिली थी। और वही एक ऐसा शख्स था जो उसे पढ़ सकता था। उसने वो किताब रख ली और पढ़ता गया। धीरे-धीरे करके सबको उसके बर्ताव मे फर्क महसूस होने लगा। लोग कहते हैं कि वो अजीबो-गरीब बाते करता था। कहता था,” तुझे पता ही क्या है?”। भविष्य और असीमता की बातें बताया करता था। लोगो को लगता था कि यह बदलाव उसमे इस किताब को पढ़ने से आए हैं। या कुछ और चीज़ है इसके पीछे। मगर लोगो को वो किताब याद रह गई। और वि बातें जो वो बोला करता था। पता नहीं किन चीजों मे अपनी ज़िंदगी के आधारों को तलाश रहा था।

कुछ नहीं समझ मे आ रहा कि क्या किया जाए इसका मतलब यह नहीं है कि हम शून्यता मे चले गए हैं, हमने जो स्टेप चुने हैं और और उस स्टेप को उठाने का जो वक्त है उन दोनो के बीच का रिश्ता जब टूट जाता है तब ना तो वह समय महत्वपूर्ण रह जाता है ना वो स्टेप। तब हम ना तो अपने शरीर में है और ना ही वर्तमान में। हम उस समय ना जाने कितने समयो मे घूम रहे होते हैं।

ऐसा कब होता है जब अपने ही कदमों के निशानों से डर लगे, जबकि उसे हमने खुद बनाए हैं।

हम अपने जीवन मे सबसे ताज़ा मे चल रही अवधारणाओं को तवज्जू देते हुए अपने समय को बनाते

ऐसा कब होता है जब हम खुद दो शख्सीयतो मे तबदील हो जाते हैं। एक वो शख्सीयत जो अपने अंदर हज़ारो राज़ छुपाए बस चली जा रही है। और दूसरी वो जो अपनी ही बनाई दुनिया मे कुछ तलाश रही है। कोई भी हमारे जीवन के सिर्फ एक शख्स को जानता है। कभी-कभी हम खुद भी नहीं समझ पाते कि हम दोहरी शख्सीयतों मे जी रहे हैं।