काफी दिनों से एक सवाल के साथ जूझ रहा हूँ।
“अंजाम” देखी। जब माधुरी शाहरुख को मारने जाती है (क्योंकि उसने उसके पति और बेटी को मारा था) पर उसे disabled पाकर उसे ठीक करने का सोचती है। उसे ठीक करने के बाद एक सीन मे जहाँ माधुरी लटकी हुई है और शाहरुख उसके पैरो को पकड़कर लटका हुआ है और कहता है कि, “खुद को बचाने के लिए तुम्हे मुझे भी बचाना होगा” और माधुरी यह कहकर हाथ छोड़ देती है कि, “मेरे ज़िंदा रहने से ज्यादा तुम्हारा मरना ज़रूरी है” और आखिरी सीन मे दोनो मरे हुए दिखाई दिए हैं। मैं सोच रहा था कि यह क्या हुआ यहाँ?
मगर मेरे लिए सवाल आगे का था, क्या इस फिल्म को माधुरी के ज़िंदा रहने के साथ नहीं छोड़ा जा सकता था? अगर हाँ तो फिर सवाल रह जाता आफ्टर-लाइफ का। कई बार यह देखने को मिला है इस तरह की कहानियों मे की motive पूरा करना ही किसी लाइफ को ज़िंदा रखने का कारण बना दिया जाता है। और motive के बाद जब उसका जीवन बहुत विस्मय या सहानुभूति भरा होता है, या वो जीवन खुद सवाल करने लग जाए तो उस जीवन को मार देना ही ठीक समझा जाता है। वरना वो जीवन जिस चीज़ डिमांड रखेगा उसके समक्ष खड़े होने के लिए हम पता नही कितने ही जीवनों पर सवाल उठा देते हैं।
मुझे अपने दोस्त राकेश के लिखे लेख की कुछ लाइने याद आने लगी
“दूनिया उसके लिये वैसी ही थी जैसी सब के लिये वो भी भूख प्यास जानता था।”
“चारो तरफ आते-जाते लोगो की भीड़ कही से कही चली जा रही होती और वो वही पर ठहरा हुआ जैसे किसी के चरित्र की अदाकारी को पेश कर रहा होता।”
“कभी भी वो तमाशा दिखाने वाला बन जाता कभी तमाशे वाले का जमूरा बन जाता ।”
मै अब अपने आस-पास जो देख पा रहा हूँ वो किसी इंसान को समझने के लिए या तो हम उसे कोई शख्सीयत देते हैं, या फिर वो जो कर रहा है उसे किसी शब्द मे उतार कर किसी अदा(हरकत) को कोई नाम देने की कोशिश करते हैं। क्या यह दोनों कभी एक साथ आ सकते हैं? दोनों के बगैर किसी को समज पाने के लिए मुझे अपने आप को एक वजह बताने पड़ती है कि मैं इसे कैसे याद करूंगा। बहुत मुश्किल है किसी को यह सोचते हुए याद रखना कि वो क्या कर रहा था या उसे क्या कहा जाता है। दूसरों के सामने अपनी खुद की performance और हम किसी को कैसे देखते हैं उसमे उसमे कुछ तो फर्क होगा ही ना?
मगर मेरा सवाल अभी भी अंजाम फिल्म के उस सीन पर वापस आता हूँ।
या दूसरी भाषा मे मुझे यह समझ आता है कि कुछ तरह के जीवन की कल्पना सिर्फ Revenge के ज़रिए ही आ पाती है।
मैंने सवाल Revenge को सोचते हुए सोचना शुरू करा था। फिर सवाल बदला, हम अपनी खुद की कहानियों मे जो पात्र बनाते है उनका वास्तविकता से शायद कोई रिश्ता ना हो मगर वो जीवन जो हमने उन्हे दिया है उस जीवन का हमारे खुद के लिए क्या स्थान है? पर Revenge का सवाल अभी भी है।
मैंने अपने कई दोस्तो से बात करके इसको समझने की कोशिश मे लगा हुआ हूँ। एक बात तो उनकी बातचीत मे साफ थी कि जब कोई Revenge लेने की सोचता है तो वो यह कहता है कि मैं जिससे बदला ले रहा हूँ उसे भी यह पता होना चाहिए कि मैं उससे बदला ले रहा हूँ वरना वो जो मैं करूंगा वो Revenge नहीं होगा। फिर मेरा सवाल यह था कि, “जब कोई Revenge लेने की सोचता है तो उसका अपनी खुद के जीवन का क्या महत्व होता है?”
“मेरे दोस्तों मे एक का कहना था कि यह choice है कि महत्व किस चीज़ का है।
जिस कोण से हम देखते हैं, अनुभव, याद, और जो कर चुके हैं यह सब मिलकर भी वर्तमान मे हमारी भूमिका को नहीं समझा पाते, हम क्या हैं और क्या हो सकते हैं यह कभी एक साथ खड़े नहीं होते, क्यो?
आग को बचाकर रखने के लिए हमेशा किसी चीज़ को जलाते रहना होता है, कपड़े इंसान के नंगेपन को छुपाते हैं मगर क्या अंधेरे मे खड़ा नग्न इंसान इसे महसूस कर पाता है?