जीवन बहुत छोटा पड़ा किसी चीज़ को समझने के लिए। हम सब अपने अंदर की Internal life को तलाशने मे लगे हुए हैं, मगर डर भी है उस चीज़ का जो उभर कर आएगी। भीड़, हम भीड़ का हिस्सा हैं मगर उसी भीड़ मे खड़ा कोई ऐसा शख्स जो उस भीड़ का पात्र ना हो वो शख्स बिना कुछ किए ही हमारी छवि पर कई ऐसे सवाल लगा देता है जिससे लड़ना हमारे खुद के बस की भी नहीं है। क्योंकि हमारे जीवन मे जो हमारे साथ चल रहा होता है हम उससे अपने सफर और मंजिल की ही बात करते है, जो हमसे आगे है, या जिसे हम पीछे छोड़ सकते हैं उससे बात करने की potential ज्यादा होती है।
Laugh, and the world laugh with you,
Weep, and you will weep alone.
हममे से शायद ही किसी के पास इस बात को कहने के लिए कोई उदाहरण होगा। क्योंकि यह हमारी इंटर्नल लाईफ का हिस्सा नहीं है। यह वो चीज़ है जहाँ दायरे और जीवन के हर लम्हों को बस कुछ कहावतों मे ले जाया जाता है। यह बात किसी स्पेसिफिक समय को बताती है जहाँ आप इस बात से एगरी करोगे, मगर हमारी इंटरनल लाइफ मे किसी स्पेसिफिक चीज़ के लिए इस तरह की चीज़े नही है। वो जब अपनी बात करता है तो उसमे दुनिया नहीं होती बल्कि वो है, वो जिन हँसते हुए चेहरो से मुखातिब हुआ है वो उसकी दुनिया है, इंसान रोते समय ही आँखे बंद करता है, शायद वो रोते समय दुनिया को नहीं देखना चाहता। शायद इसी तरह की जर्नी हमारे अंदर की इंटर्नल लाईफ को हमारे सामाजिक जीवन से अलग रखती है, क्योंकि समाज यह बात कह सकता है।
जहाँ खाना खिलाने वाली मशीन गड़बड़ होने पर यह भूल जाती है कि जिसे वो खाना खिला रही है वो एक जीवित शरीर है वहाँ यह भूल जाना सिर्फ एक तरह की सच्चाई है। हमारा खुद का जीवन यह मशीन की तरह है, जब तक चल रहा है जीवित शरीर के लिए है जहाँ भी इसमे किसी तरह की कोई खराबी आती है वो भूल जाता है कि वो क्या करने निकला था। उसे लगता है उसके आस-पास कुछ भी नहीं है।
मगर यह बात किसी मशीन के खराब होने या उस चीज़ पर हंस देने पर खत्म नहीं हो जाती है।क्योंकि मशीन यहाँ जो कर गई है हम उसको फोलो करते हैं। उस भूल जाने को बड़ी आसानी से अपने जीवन मे जगह दे देते हैं। अगर इस भूल जाने को महत्व नहीं देगें तो शायद किसी भी जोक पर हँस नहीं पाएंगे? मगर क्या यह भुला देना सिर्फ जोक तक सीमित है, शायद नहीं! यह कुछ और है।
हमारे आसपास किसी तरह का बाहरी फोर्स है, शायद हम उसे
किसी छोटे बच्चे को हवा मे उछालते पिता(शख्स) को गौर से देखा है। जब बच्चा हवा मे होता है तो वो उस बच्चे को एक एक्सप्रेशन देता है, “डर का” हम सबके जीवन मे यह डर वो नहीं है जिसे हम जीते है। शायद उसके पिता उसे बता रहे हैं कि जीवन मे यह “डर” भी कोई चीज़ है। मगर वो उसे डरा नहीं रहे हैं, यह एक एंकाउटर है किसी एक फीलिंग के साथ। कई बार वो उस एक्सप्रेशन को समझाने के लिए वो उसे और ज्यादा ऊपर हवा मे उझाल देता है। उन दोनो के बीच जो हुआ उसे कभी शब्दों मे नही बताया जा सकता, या शायद मेरे पास उसके लिए शब्द नही हैं।
कहीं यह भूल जाना इस तरह का कोई रूप लिए हुए तो नहीं है?
हम सबके जीवन मे भूलने का एक महत्व है?हमारी हिंदी फिल्म का एक फेमस डायलॉग है जो इसको बहुत बारीकी से पकड़ता है। ”
अमिताभ:- “ मैं इस समय एक पुलिस इंस्पेक्टर से बात कर रहा हूँ या एक भाई से?”
शशि कपूर:-”अगर एक भाई सवाल पूछेगा तो एक भाई जवाब देगा, एक डॉन पूछेगा तो एक पुलिस इंस्पेक्टर जवाब देगा।”
कितना आसानी से जीवन मे भूलने को उतार लिया है हमने। यह दोनो ही अपने अंदर जी रहे दूसरे शख्स को आसानी से भूल सकते हैं। हम अपने समाज, रिश्तों या किसी भी जीवित संदर्भ से इसी की उम्मीद करते हैं। हम अपने आम जीवन मे ऐसे कई एक्सांपल्स निकाल समते हैं। और यह सिर्फ जीवित चीज़ो तक ही नहीं है बल्कि रोज़मर्रा मे इस्तेमाल होती कई चीज़ जिनका अपना कोई वजूद नहीं है इस तरह की दोहरे जीवन का एक हिस्सा हैं।
हमारी भाषा हमारे खुद के वजूद के लिए एक साधन है, जहाँ
हम इस भूलने को “पचा” (accept) सकते हैं तभी किसी को हँसाने के लिए यह दिखाया जा सकना संभव हुआ है। हम शरीर के अलग एहसासो को दिखाने के लिए जोकर, पागल, वैश्या जैसी शख्सीयतों को सामने लाते है। आखिर ऐसा क्यों है कि बिना शरीर के किसी एहसास को बताने के लिए हमें किसी ठोस छवि की ज़रूरत पड़ती है?